(सवैया)
ज्ञानजिहाज बैठि गनधर-से, गुनपयोधि जिस नाहिं तरे हैं ।
अमर-समूह आनि अवनी सौं, घसि-घसि सीस प्रनाम करे हैं ।।
किधौं भाल-कुकरम की रेखा, दूर करन की बुद्धि धरे हैं।
ऎसे आदिनाथ के अहनिस, हाथ जोड़ि हम पाँय परे हैं।। १।।
जिनके गुणसमुद्र का पार गणधर जैसे बड़े-बड़े नाविक अपने विशाल ज्ञानजहाजों द्वारा भी नहीं पा सके है और जिन्हें देवताओं के समूह स्वर्ग से उतरकर पृथ्वी से पुनः पुनः अपने सिर घिसकर इस तरह प्रणाम करते हैं मानों वे अपने ललाट पर बनी कुकर्मों की रेखा को दूर करना चाहते हों; उन प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ को हम सदैव हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं और उनके चरणों की शरण ग्रहण करते हैं।
(सवैया)
काउसग्ग मुद्रा धरि वन में, ठाड़े रिषभ रिद्धि तजि हीनी।
निहचल अंग मेरु है मानौ, दोउ भुजा छोर जिन दीनी।।
फँसे अनंत जंतु जग-चहले, दुखी देखि करुना चित लीनी।
काढ़न काज तिन्है समरथ प्रभु, कीधौ बाँह ये दीरघ कीनी।।२।।
भगवान ऋषभदेव कायोत्सर्ग मुद्रा धारण कर वन में खड़े हुए हैं। उन्होंने समस्त ऐश्वर्य को तुच्छ जानकर छोड़ दिया हैं। उनका शरीर इतना निश्चल है मानों सुमेरु पर्वत हो। उन्होंने अपनी दोनों भुजाओं को शिथिलतापूर्वक नीचे छोड़ रखा है, जिससे ऐसा लगता है मानों संसाररूपी कीचड़ में फँसे हुए अनंत प्राणियों को दुःखी देख कर उनके मन में करुणा उत्पन्न हुई है और उन्होंने अपनी दोनों भुजाएँ उन प्राणियों को संसाररूपी कीचड़ से निकालने के लिए लम्बी की हैं।
(सवैया)
जिनेन्द्र भगवान को हाथों से कुछ भी करना नहीं बचा हैं, अतः उन्होंने अपने हाथों को शिथिलतापूर्वक निचे लटका दिया है ; पैरों से चलकर उन्हें कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं रहा है, अतः उनके पैर एक स्थान से हिलते नहीं हैं, स्थिर हैं ; वे सब कुछ देख चुके हैं, अतः उन्होंने अपनी आँखों को नासिका की नोक पर टिका दिया है; तथा कानों से भी अब वे क्या सुनें, इसलिए ध्यानस्थ होकर कानन ( वन ) में खड़े हैं।
(सवैया)
करनौ कछु न करन तैं कारज, तातैं पानि प्रलम्ब करे हैं।
रह्यौ न कछु पाँयन तैं पैबौ, ताही तैं पद नाहीं टरे हैं।।
निरख चुके नैनन सब यातैं, नैन नासिका-अनी धरे हैं।
कानन कहा सुनैं यौं कानन, जोगलीन जिनराज खरे हैं।। ३।।
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